ये क़दीम मुस्लिम ताजिरों की रिवायत थी कि वह सुबह दुकान खोलने के साथ एक छोटी सी कुर्सी दुकान के बाहर रखते थे, जूं ही पहला गाहक आता दुकानदार कुर्सी उस जगह से उठाता और दुकान के अंदर रख देता था...
लेकिन जब दूसरा गाहक आता तो दुकानदार अपनी दुकान से बाहर निकलकर बाज़ार पर एक नज़र डालता जिस दुकान के बाहर कुर्सी पड़ी होती वह गाहक से कहता कि तुम्हारी ज़रूरत की चीज़ उस दुकान से मिल जाएगी, मैं सुबह का आगाज़ कर चुका हूँ...
कुर्सी का दुकान के बाहर रखना इस बात की दलील या निशानी होती थी कि अभी तक उस दुकानदार ने आगाज़ नहीं किया है...
ये उस वक़्त के मुस्लिम ताजिरों का अख़लाक़ और मोहब्बत थी जिसके नतीजे में उन पर बरकतों का नुज़ूल होता था...
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